Sunday, August 23, 2009
Friday, May 22, 2009
Monday, May 18, 2009
तेरहवी २१ को होगी
21 would be the 13vi for both late Mr.Navneet Kumar Punetha and Vasant Punetha...because both members have departed for havenly abode with in period of 13 days, and leaving grieved and shocked the punetha family..so it has been decided as per ritual that 13vi would be performed on 21 may 2009 in Mathura
Saturday, May 16, 2009
वसंत पुनेठा नही रहे
vasant Punetha is no more, he was 70 odd years Old(as per the information), he has a son name is sudheer Punetha May god give him peace in havenly abode...
Saturday, May 9, 2009
नवनीत पुनेठा नही रहे
बहुत बढिया चिता है...मस्त जल रही है...आग कौ भभका सब खाक दैगो...छेडियो मत... ये शब्द अभी भी कान में हडकंप मचाये हैं...ये शब्द थे मथुरा के एक पंडे के, जो क्रिया कर्म करवाने के लिये आया था...
मेरे चाचा नही रहे...खबर मिली तो आनन फानन में दौड पडे ब्रज नगरी की ओर...मौत अंतिम सत्य है, लिखा था वंहा पर..सुना भी है कई दफा...लेकिन अभी तक किसी अपने की मौत को इतना नज़दीक से नही देखा था...मेरे दादाजी तकरीबन 21 साल पहले चल बसे थे...तब उम्र कम थी...और उनको नज़दीक से नही देखने दिया था...लेकिन चाचा ज्यादा नज़दीक थे...उन्हीके हाथो क्रिकेट का बल्ला पहली दफा पकडा...उन्ही के कंधो पर रामलीला और रासलीला देखी...उन्ही से फरमायिशो का दौर चलता था...चाचा ये चाहिये, चाचा वो चाहिये...दरअसल मै जिस पीढी का हूं उसमें बचपन पिता के साथ साथ चाचाओं के कंधो पर भी बीतता था...आजकल अपने फ्लैट्स में चाचाओ और ताउंओ के लिये कंहा जगह है...लेकिन दादाजी के पुराने घर में दिनभर घमाचौकडी...उघम...शरारत..डांट पिटाई...और पिटाई के बाद सभी भाई बबनो की हंसी ठठ्ठा.. फिर शिकवे शिकायत...ये वो यादो का संमुदर जो अपनी हिलोरें ताउम्र मारता है....इसीलिये जब अपने चाचा का जीर्णशीर्ण निर्जीव शरीर देखा तो लगा ही नही कि ये वो हो सकते है...पैरों तले जमीन खिसक गयी...ये नही हो सकता...ये मेरे चाचा नही हो सकते ..वो तो काफी स्मार्ट थे...वो तो काफी कसरत करा करते थे, मथुरा की व्यायामशाला में उनके किस्से हम सबने सुने थे...काफी कसरती बदन था उनका, लेकिन ये डरावना चैहरा ...आखें खुली थी...शरीर सूख कर कांटा हो चुका था...पहली बार लगा कि मौत कितनी भयानक होती है...दिल्ली से मथुरा पहुचने में 4 घंटे लग चुके थे...बमुश्किल 10 मिनट उनको देख पाया...मौहल्ले के लोगों ने कहना शुरू कर दिया था..कि अब ले चलो...गर्मी में ज्यादा देर तक ब़ॉडी को नही रखते...चेहरे पर मख्खियां आने लगी थी...मुझे चाचा की मौत से ज्यादा शौक लोगो के शब्दो से हो रहा था...अरे होनी को कौन टाल सकता है, चलो अच्छा हुआ कि चलते फिरते चले गये, दादा बन गये थे, तो भरा पूरा परिवार छोड के गये है, चलो अब चलें...और आननफानन में शरीर को काठी पर लिटाया...और पंडित ने कहा कि आखिरीबार परिक्रमा कर लो...पैर छू लो...मैने पैर छुये...परिवार के लोगो ने रस्म निभायी...फिर अर्थी को कंधे पर उठा के चल दिये शम्शान घाट...वंहा का नजारा अलग ही था...लोग इस तरह काम को कर रहे थे...कि कुछ हुआ ही नही है...ये रोजमर्रा का काम है... जब चिता तैयार की जा रही थी, तो शब्दावली बेहद कठोर..” अरे लकडी बाद में पहले सूखे झाड रखो,आग तो वो ही पकडंगे...और जब चाचा को उस चिता पर लिटाया गया, तो मेरी आखों से आसूं रूक ही नही रहे थे...मुझे लगा कि ये आखरी लम्हे है उनको देखने के ,लेकिन मैं अकेला था उस भीड में..मुझे लगा कि शायद दुनिया ज्यादा प्रैक्टिकल हो गयी है..मुझे लग रहा था कि अब इस जिंदगी में मै उनको फिर नही देख पाउंगा...कुछ ही देर में कुछ नही रहेगा...वो सिर्फ तस्वीरो में रह जायेंगे...मै आंसूओ को छिपाने की नाकाम कोशिश करने लगा..फिर चचेरे भाई पारूल ने मुखाग्नी देदी...मैं देखता रहा...मुझसे कहा गया कि मैं अब चिता से दूर हट जाउं...पंडे ने कहा कि चलो बेटा अनुराग-मोह माया अब दूर...चाचाजी थे...अब नही, ये संसार का नियम है...फिर गीता का महात्य बता दिया गया...लेकिन मैं बढती लपटों को देख रहा था, ज़रा सी आंच से चिल्ला उठने वाला कोई इंसान लपटों में निढाल पडा था...फिल्मो में देखा है कि मरने के बाद शायद कोई अपना क्रिया कर्म भी देखता है...मुझे भी लगा कि शायद चाचा उपर कही से बिना दिखायी दिये अपने शरीर को खाक होते देख रहे होंगें...बहुत दुख हो रहा होगा कि जिस शरीर पर इतना ध्यान दिया वो आग के हवाले हो चुका है...आग तेज़ हो गयी...और मैं दूर जाकर चिता को देखता रहा...और उघर माहौल जिंदगानी से भरपूर, कोई हंस रहा है, कोई चाचा की तारीफ कर रहा है.कोई गर्मी की बात कर रहा था, तो कुछ भाई ताश खेलने में व्यस्त हो गये, उनके मुताबिक चिता को पूरी तरह जलने में 3 घंटे लगेंगे...और ज्यादा क्या शोक करना.... ये तो अंतिम सत्य है...आत्मा तो अमर है, वो तो पुराने वस्त्र त्याग कर नये कपडे पहनती है...कुछ देर बाद कपाल क्रिया हुयी..और तभी एक चौबे जी महराज ने चिता को देखकर कहा कि चिता बहुत बढिया है, मस्त आग जल रही है...जही भभका ते पसलियां और खोपडी जलेगी..छेडवे की जरूरत नाये...मन किया कि जाकर एक झन्नाटेदार झापड रसीद करदूं...लेकिन फिर सोचा कि इमोशनल तो मैं हो रहा हूं...नुकसान तो हमारा हुआ है...उस भाई का नही, शायद वो इस दुनियांवी क्रियाकर्म में बहुत पारंगत हो गया हो...ज्य़ादा मौतें देखी हों उसने... मैं सिर्फ ये ही कह पाया कि अलविदा चाचा....अब कभी नही मिलेंगें....तारो में अपनों को देखने की मेरी उम्र निकल गयी है...और मैं निकल गया...
मेरे चाचा नही रहे...खबर मिली तो आनन फानन में दौड पडे ब्रज नगरी की ओर...मौत अंतिम सत्य है, लिखा था वंहा पर..सुना भी है कई दफा...लेकिन अभी तक किसी अपने की मौत को इतना नज़दीक से नही देखा था...मेरे दादाजी तकरीबन 21 साल पहले चल बसे थे...तब उम्र कम थी...और उनको नज़दीक से नही देखने दिया था...लेकिन चाचा ज्यादा नज़दीक थे...उन्हीके हाथो क्रिकेट का बल्ला पहली दफा पकडा...उन्ही के कंधो पर रामलीला और रासलीला देखी...उन्ही से फरमायिशो का दौर चलता था...चाचा ये चाहिये, चाचा वो चाहिये...दरअसल मै जिस पीढी का हूं उसमें बचपन पिता के साथ साथ चाचाओं के कंधो पर भी बीतता था...आजकल अपने फ्लैट्स में चाचाओ और ताउंओ के लिये कंहा जगह है...लेकिन दादाजी के पुराने घर में दिनभर घमाचौकडी...उघम...शरारत..डांट पिटाई...और पिटाई के बाद सभी भाई बबनो की हंसी ठठ्ठा.. फिर शिकवे शिकायत...ये वो यादो का संमुदर जो अपनी हिलोरें ताउम्र मारता है....इसीलिये जब अपने चाचा का जीर्णशीर्ण निर्जीव शरीर देखा तो लगा ही नही कि ये वो हो सकते है...पैरों तले जमीन खिसक गयी...ये नही हो सकता...ये मेरे चाचा नही हो सकते ..वो तो काफी स्मार्ट थे...वो तो काफी कसरत करा करते थे, मथुरा की व्यायामशाला में उनके किस्से हम सबने सुने थे...काफी कसरती बदन था उनका, लेकिन ये डरावना चैहरा ...आखें खुली थी...शरीर सूख कर कांटा हो चुका था...पहली बार लगा कि मौत कितनी भयानक होती है...दिल्ली से मथुरा पहुचने में 4 घंटे लग चुके थे...बमुश्किल 10 मिनट उनको देख पाया...मौहल्ले के लोगों ने कहना शुरू कर दिया था..कि अब ले चलो...गर्मी में ज्यादा देर तक ब़ॉडी को नही रखते...चेहरे पर मख्खियां आने लगी थी...मुझे चाचा की मौत से ज्यादा शौक लोगो के शब्दो से हो रहा था...अरे होनी को कौन टाल सकता है, चलो अच्छा हुआ कि चलते फिरते चले गये, दादा बन गये थे, तो भरा पूरा परिवार छोड के गये है, चलो अब चलें...और आननफानन में शरीर को काठी पर लिटाया...और पंडित ने कहा कि आखिरीबार परिक्रमा कर लो...पैर छू लो...मैने पैर छुये...परिवार के लोगो ने रस्म निभायी...फिर अर्थी को कंधे पर उठा के चल दिये शम्शान घाट...वंहा का नजारा अलग ही था...लोग इस तरह काम को कर रहे थे...कि कुछ हुआ ही नही है...ये रोजमर्रा का काम है... जब चिता तैयार की जा रही थी, तो शब्दावली बेहद कठोर..” अरे लकडी बाद में पहले सूखे झाड रखो,आग तो वो ही पकडंगे...और जब चाचा को उस चिता पर लिटाया गया, तो मेरी आखों से आसूं रूक ही नही रहे थे...मुझे लगा कि ये आखरी लम्हे है उनको देखने के ,लेकिन मैं अकेला था उस भीड में..मुझे लगा कि शायद दुनिया ज्यादा प्रैक्टिकल हो गयी है..मुझे लग रहा था कि अब इस जिंदगी में मै उनको फिर नही देख पाउंगा...कुछ ही देर में कुछ नही रहेगा...वो सिर्फ तस्वीरो में रह जायेंगे...मै आंसूओ को छिपाने की नाकाम कोशिश करने लगा..फिर चचेरे भाई पारूल ने मुखाग्नी देदी...मैं देखता रहा...मुझसे कहा गया कि मैं अब चिता से दूर हट जाउं...पंडे ने कहा कि चलो बेटा अनुराग-मोह माया अब दूर...चाचाजी थे...अब नही, ये संसार का नियम है...फिर गीता का महात्य बता दिया गया...लेकिन मैं बढती लपटों को देख रहा था, ज़रा सी आंच से चिल्ला उठने वाला कोई इंसान लपटों में निढाल पडा था...फिल्मो में देखा है कि मरने के बाद शायद कोई अपना क्रिया कर्म भी देखता है...मुझे भी लगा कि शायद चाचा उपर कही से बिना दिखायी दिये अपने शरीर को खाक होते देख रहे होंगें...बहुत दुख हो रहा होगा कि जिस शरीर पर इतना ध्यान दिया वो आग के हवाले हो चुका है...आग तेज़ हो गयी...और मैं दूर जाकर चिता को देखता रहा...और उघर माहौल जिंदगानी से भरपूर, कोई हंस रहा है, कोई चाचा की तारीफ कर रहा है.कोई गर्मी की बात कर रहा था, तो कुछ भाई ताश खेलने में व्यस्त हो गये, उनके मुताबिक चिता को पूरी तरह जलने में 3 घंटे लगेंगे...और ज्यादा क्या शोक करना.... ये तो अंतिम सत्य है...आत्मा तो अमर है, वो तो पुराने वस्त्र त्याग कर नये कपडे पहनती है...कुछ देर बाद कपाल क्रिया हुयी..और तभी एक चौबे जी महराज ने चिता को देखकर कहा कि चिता बहुत बढिया है, मस्त आग जल रही है...जही भभका ते पसलियां और खोपडी जलेगी..छेडवे की जरूरत नाये...मन किया कि जाकर एक झन्नाटेदार झापड रसीद करदूं...लेकिन फिर सोचा कि इमोशनल तो मैं हो रहा हूं...नुकसान तो हमारा हुआ है...उस भाई का नही, शायद वो इस दुनियांवी क्रियाकर्म में बहुत पारंगत हो गया हो...ज्य़ादा मौतें देखी हों उसने... मैं सिर्फ ये ही कह पाया कि अलविदा चाचा....अब कभी नही मिलेंगें....तारो में अपनों को देखने की मेरी उम्र निकल गयी है...और मैं निकल गया...
Thursday, May 7, 2009
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